मेरी रानी!
बहुत दिन हुए
जब कि तुम्हारे दोनों किसलय
मदिर उसासों से बोझिल हो काँप उठे
स्वर निकला
निकला मानो यौवन का बसन्न
बौराई बगिया,
और
कुसम की कोमलता से
फुटी ऐसी काँति
कि जिसकी
अलसाई सकुचाई पाँखें
पश्चिम के मर्मर की
मुखरित साथ समेटे झूम उठीं
न जाने कैसे
अनचाहे ही चूम उठी।
बहुत दिनों के बाद
शाम को कल जब
माटी की मूरत में
तुमने
मेरी आँसू की दुखियारी बूँदों को भरमाया
लगा कि जैसे
रंगराते कजरारे खंजन बोलेंगे
नभ राजा धरती की धड़कनें टटोलेंगे
रूठा चंदा
सागर की प्यास बुझएगा।
पर
आज
जबकि
कुछ राजनीति के सिक्कों से
कागज के बनिए
लगे आँकने मोल
तुम्हारे कंचन का
जब
रजत हिमानी कण का
सुभग सुहाग घूँट
अणु की आत्मा में
घुसा नाश का विज्ञानी
गंगा की बूदों से
उद्जन का भस्मासूर
जब निकल फूँकने चला तुम्हारे शेकर को
जब
मार्क्स और फ्रायड की जूठी प्लेट चाट
अपने ही पाले
लगे आप पर गुर्राने
जब
आलबाल का सुरभित मधुरिम मृदु गुंजन
तर्कों के जादूगर का जड़ जंजाल बना
तब कैसे हँसा मिले
तुम्हारी लहराती उन झीलों से।
मजबूरी का नाम सब्र है
अब का मानव
चलती फिरती स्वयं कब्र है
बस अंतिम है बात
|अंत है रात
लोग अब जाग रहे हैं
मेरे एकाकी के साथी
भाव तुम्हारे भाग रहे है
जीते रहने पर फिर ऐसे और लिखूँगा
वही तुम्हारा
जिसके
उसकी मजबूरी के संग
करो तुम याद।